श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 31-48

सप्तम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! नृसिंह भगवान् इतना कहकर और ब्रह्मा जी के द्वारा की हुई पूजा को स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान-समस्त प्राणियों के लिये अदृश्य हो गये। इसके बाद प्रह्लाद जी ने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शंकर की तथा प्रजापति और देवताओं की पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया। तब शुक्राचार्य आदि मुनियों के साथ ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद जी को समस्त दानव और दैत्यों का अधिपति बना दिया। फिर ब्रह्मादि देवताओं ने प्रह्लाद का अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लाद जी ने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकों को चले गये।

युधिष्ठिर! इस प्रकार भगवान् के वे दोनों पार्षद जय और विजय दिति के पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान् से वैर भाव रखते थे। उनके हृदय में रहने वाले भगवान् ने उनका उद्धार करने के लिये उन्हें मार डाला। ऋषियों के शाप के कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिर से कुम्भकर्ण और रावण के रूप में राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीराम के पराक्रम से उनका अन्त हुआ। युद्ध में भगवान् राम के बाणों से उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्म की भाँति भगवान् का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े। वे ही अब इस युग में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में पैदा हुए थे। भगवान् के प्रति वैर भाव होने के कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये। युधिष्ठिर! श्रीकृष्ण से शत्रुता रखने वाले सभी राजा अन्त समय में श्रीकृष्ण के स्मरण से तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापों से सदा के लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगी के द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भय से ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार भगवान् के प्यारे भक्त अपनी भेद-भाव रहित अनन्य भक्ति के द्वारा भगवत्स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान् के वैर भावजनित अनन्य चिन्तन से भगवान् के सारूप्य को प्राप्त हो गये।

युधिष्ठिर! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल आदि को उनके सारूप्य की प्रप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया। ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्ण का यह परम पवित्र अवतार-चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इन दोनों दैत्यों के वध का वर्णन है। इस प्रसंग में भगवान् के परमभक्त प्रह्लाद का चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के स्वामी श्रीहरि के यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओं का वर्णन है। इस आख्यान में देवता और दैत्यों के पदों में कालक्रम से जो महान् परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा भगवान् की प्राप्ति होती है, उस भागवत-धर्म का भी वर्णन है। अध्यात्म के सम्बन्ध में भी सभी जानने योग्य बातें इसमें हैं। भगवान् के पराक्रम से पूर्ण इस पवित्र आख्यान को जो कोई पुरुष श्रद्धा से कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य परमपुरुष परमात्मा की यह श्रीनृसिंह-लीला, सेनापतियों सहित हिरण्यकशिपु का वध और संत शिरोमणि प्रह्लाद जी का पावन प्रभाव एकाग्र मन से पढ़ता और सुनता है, वह भगवान् के अभयपद वैकुण्ठ को प्राप्त होता है।

युधिष्ठिर! इस मनुष्य लोक में तुम लोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्त रूप से निवास करते हैं। इसी से सारे संसार को पवित्र कर देने वाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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