सप्तम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 49-71 का हिन्दी अनुवाद
राजा युधिष्ठिर ने पूछा- 'नारद जी! मय दानव किस कार्य में जगदीश्वर रुद्र देव का यश नष्ट करना चाहता था और भगवान् श्रीकृष्ण ने किस प्रकार उनके यश की रक्षा की? आप कृपा करके बतलाइये। नारद जी ने कहा- एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण से शक्ति प्राप्त करके देवताओं ने युद्ध में असुरों को जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियों के परम गुरु मय दानव की शरण में गये। शक्तिशाली मयासुर ने सोने, चाँदी और लोहे के तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं। युधिष्ठिर! दैत्य सेनापतियों के मन में तीनों लोक और लोकपतियों के प्रति वैर भाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानों के द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे। तब लोकपालों के साथ सारी प्रजा भगवान् शंकर की शरण में गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! त्रिपुर में रहने वाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अतः देवाधिदेव! आप हमारी रक्षा कीजिये’। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकर ने कृपापूर्ण शब्दों में कहा- ‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर तीनों पुरों पर छोड़ दिया। उनके उस बाण से सूर्य मण्डल से निकलने वाली किरणों के समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमें से मानो आग की लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरों का दीखना बंद हो गया। उनके स्पर्श से सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्यों को उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृत के कुएँ में डाल दिया। उन सिद्ध अमृत-रस का स्पर्श होते ही असुरों का शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की आग की तरह उठ खड़े हुए। इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण ने जब देखा कि महादेव जी तो अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्होंने एक युक्ति की। यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्मा जी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्न के समय उन तीनों पुरों में गये और उस सिद्ध रस के कुएँ का सारा अमृत पी गये। यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनों को देख रहे थे, फिर भी भगवान् की माया से वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जानने वालों में श्रेष्ठ मयासुर को यह बात मालूम हुई, तब भगवान् की इस लीला का स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करने वाले अमृत-रक्षकों से उनके कहा- ‘भाई! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनों के लिये जो प्रारब्ध का विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है?’ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी शक्तियों के द्वारा भगवान् शंकर के युद्ध की सामग्री तैयार की। उन्होंने धर्म से रथ, ज्ञान से सारथि, वैराग्य से ध्वजा, ऐश्वर्य से घोड़े, तपस्या से धनुष, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियों से अन्यान्य वस्तुओं का निर्माण किया। इन सामग्रियों से सज-धजकर भगवान् शंकर रथ पर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शंकर ने अभिजित् मुहूर्त में धनुष पर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानों को भस्म कर दिया। युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानों की भीड़ लग गयी। देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्द से जय-जयकार करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं। युधिष्ठिर! इस प्रकार उन तीनों पुरों को जलाकर भगवान् शंकर ने ‘पुरारि’ की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकों की स्तुति सुनते हुए अपने धाम को चले गये। आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी माया से जो मनुष्यों की-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषि लोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओं का गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज