श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 15-30

सप्तम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी ने कहा- महेश्वर! आप वर देने वालों के स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिता ने आपके ईश्वरीय तेज को और सर्वशक्तिमान् चराचर गुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णु ने मेरे भाई को मार डाला है’ ऐसी मिथ्या दृष्टि रखने के कारण पिता जी करोड़ के वेग को सहन करने में असमर्थ ओ गये थे। इसी से उन्होंने आपका भक्त होने के कारण मुझसे भी द्रोह किया। दीनबन्धो! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होने वाले दुस्तर दोष से मेरे पिता शुद्ध हो जायें।'

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- निष्पाप प्रह्लाद! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढ़ियों के पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते; क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुल को पवित्र करने वाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ। मेरे शान्त, समदर्शी और सुख से सदाचार पालन करने वाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं। दैत्यराज! मेरे भक्तिभाव से जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जाने के कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं पहुँचाते। संसार में जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त जो जायेंगे। बेटा! तुम मेरे सभी भक्तों के आदर्श हो। यद्यपि मेरे अंगों का स्पर्श होने से तुम्हारे पिता पूर्णरूप से पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तान के कारण उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी। वत्स! तुम अपने पिता के पद पर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियों की आज्ञा के अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरण में रहकर मेरी सेवा के लिये ही अपने सारे कार्य करो।

नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! भगवान् की आज्ञा के अनुसार प्रह्लाद जी ने अपने पिता कि अन्त्येष्टि-क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक किया। इसी समय देवता, ऋषि आदि के साथ ब्रह्मा जी ने नृसिंह भगवान् को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनों के द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही।

ब्रह्मा जी ने कहा- देवताओं के आराध्यदेव! आप सर्वान्तर्यामी, जीवों के जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगों को बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने इसे मार डाला। मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टि का कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बल के कारण उच्छ्रंखल होकर इसने वेद विधियों का उच्छेद कर दिया था। यह भी बड़े सौभाग्य की बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्ध हृदय नन्हे-से शिशु प्रह्लाद को आपने मृत्यु के मुख से छुड़ा दिया; तथा यह भी बड़े आनन्द और मंगल की बात है कि वह अब आपकी शरण में है। भगवन्! आपके इस नृसिंह रूप का ध्यान जो कोई एकाग्र मन से करेगा, उसे यह सब प्रकार के भयों से बचा लेगा। यहाँ तक कि मारने की इच्छा से आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी।

श्रीनृसिंह भगवान् बोले- ब्रह्मा जी! आप दैत्यों को ऐसा वर न दिया करें। जो स्वभाव से ही क्रूर हैं, उनको दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपों को दूध पिलाना।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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