श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 17-25

पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद


उसके नीचे वितल लोक में भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेव जी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के तेज से वहाँ हाटकी नाम की एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जल को वायु से प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साह से पीता है। वह जो हाटक नाम का सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणों को दैत्यराजों के अन्तःपुरों में स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं।

वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्र कीर्ति विरोचन पुत्र बलि रहते हैं। भगवान् ने इन्द्र का प्रिय करने के लिये अदिति के गर्भ से वटु-वामन रूप में अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे। फिर भगवान् की कृपा से ही उनका इस लोक में प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादि के पास भी नहीं है। अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभु की अपने धर्माचरण द्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं।

राजन्! सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्र आने पर उन्हें परम श्रद्धा और आदर के साथ स्थिर चित्त से दिये हुए भूमिदान का यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलि को सुतल लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्ष का ही द्वार है। भगवान् का तो छींकने, गिरने और फिसलने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धन को काट देता है, जबकि मुमुक्षु लोग इस कर्म बन्धन को योग साधन आदि अन्य अनेकों उपायों का आश्रय लेने पर बड़े कष्ट से कहीं काट पाते हैं। अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियों को स्वस्वरूप प्रदान करने वाले और समस्त प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान् को आत्मभाव से किये हुए भूमिदान का यह फल नहीं हो सकता। भगवान् ने यदि बलि को उसके सर्वस्वदान के बदले अपनी विस्मृति कराने वाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उस पर यह कोई अनुग्रह नहीं किया।

जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान् ने याचकों के छल से उसका त्रिलोकी का राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीर मात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में डाल दिये जाने पर उसने कहा था- ‘खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल नहीं है। इसने सम्मति लेने के लिये अनन्यभाव से बृहस्पति जी को अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णु भगवान् से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे। ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तर तक ही रहते हैं, जो अनन्त काल का एक अवयव मात्र है। भगवान् के कैंकर्य के आगे भला, इन तुच्छ भोगों का क्या मूल्य है। हमारे पितामह प्रह्लाद जी ने-भगवान् के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपु के मारे जाने पर-प्रभु की सेवा का ही वर माँगा था। भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करने वाला समझकर उन्होंने अपने पिता का निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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