श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 24 श्लोक 10-16

पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ के बगीचे भी अपनी शोभा से देवलोक के उद्यानों की शोभा को मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलों के गुच्छों और कोमल कोंपलों के भार से झुकी रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरह की लताओं ने अपने अंगपाश से बाँध रखा है। वहाँ जो निर्मल जल से भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं। इन वृक्षों और जलाशयों की सुषमा से वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयों में रहने वाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है। साथ ही जल के ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कल्हार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदि के समुदाय भी हिलने लगते हैं।

इन कमलों के वनों में रहने वाले पक्षी अविराम क्रीड़ा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँति की बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियों में उत्सव-सा छा जाता है। वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि काल विभाग का भी कोई खटका नहीं देखा जाता। वहाँ के सम्पूर्ण अन्धकार को बड़े-बड़े नागों के मस्तकों की मणियाँ ही दूर करती हैं। इन लोकों के निवासी जन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादि का सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओं के सेवन से उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते तथा झुर्रियां पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देह का कान्तिहीन हो जाना, शरीर में से दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयु के साथ शरीर की अवस्थाओं का बदलना-ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं।

उन पुण्य पुरुषों की भगवान् के तेजरूप सुदर्शन चक्र के सिवा और किसी साधन से मृत्यु नहीं हो सकती। सुदर्शन चक्र के आते ही भय के कारण असुर रमणियों का गर्भपात[1] हो जाता है। अतल लोक में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानबे प्रकार की माया रची है। उनमें से कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषों में पायी जाती हैं। उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुख से स्वैरिणी (केवल अपने वर्ण के पुरुषों से रमण करने वाली), कामिनी (अन्य वर्णों के पुरुषों से भी समागम करने वाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चंचल स्वभाव वाली)-तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं। ये उस लोक में रहने वाले पुरुषों को हाटक नाम रस पिलाकर सम्भोग करने में समर्थ बना लेती हैं और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिंगनादि के द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रस को पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपने को दस हजार हाथियों के समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ’ इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करने लगता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘आचतुर्थाद्भवेत्स्त्रावः पातः पंचमषष्ठयोः’ अर्थात् चौथे मास तक जो गर्भ गिरता है, उसे ‘गर्भस्त्राव’ कहते हैं तथा पाँचवें और छठे मास में गिरने से वह ‘गर्भपात’ कहलाता है।

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