श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 17-35

एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद


मैं गजराजों में ऐरावत, जल निवासियों में उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकने वालों में सूर्य तथा मनुष्यों में राजा हूँ। मैं घोड़ो में उच्चैःश्रवा, धातुओं में सोना, दण्डधारियों में यम और सर्पों में वासुकि हूँ।

निष्पाप उद्धव जी! मैं नाग राजों में शेषनाग, सींग और दाढ़ वाले प्राणियों में उनका राजा सिंह, आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ। मैं तीर्थ और नदियों में गंगा, जलाशयों में समुद्र, अस्त्र-शस्त्रों में धनुष तथा धनुर्धरों में त्रिपुरारि शंकर हूँ।

मैं निवास स्थानों में सुमेरु, दुर्गम स्थानों में हिमालय, वनस्पतियों में पीपल और धान्यों में जौ हूँ। मैं पुरोहितों में वसिष्ठ, वेदवेत्ताओं में बृहस्पति, समस्त सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और सन्मार्ग प्रवर्तकों में भगवान ब्रह्मा हूँ। पंचमहायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय यज्ञ) हूँ, व्रतों में अहिंसा व्रत और शुद्ध करने वाले पदार्थों में नित्य शुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ। आठ प्रकार के योगों में मैं मनोनिरोध रूप समाधि हूँ। विजय के इच्छुकों में रहने वाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ। कौशलों में आत्मा और अनात्मा का विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियों में विकल्प हूँ। मैं स्त्रियों में मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषों में स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरों में नारायण और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ। मैं धर्मों में कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रय के त्याग द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभय के साधनों में आत्मस्वरूप का अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपन के साधनों में मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुष के जोड़ों में मैं प्रजापति हूँ-जिनके शरीर के दो भोगों से पुरुष और स्त्री का पहला जोड़ा पैदा हुआ।

सदा सावधान रहकर जागने वालों में संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओं में वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित् हूँ। मैं युगों में सत्ययुग, विवेकियों में महर्षि देवल और असित, व्यासों में श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास तथा कवियों में मनस्वी शुक्राचार्य हूँ। सृष्टि की उत्पत्ति और लय, प्राणियों के जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्या के जानने वाले भगवानों में (विशिष्ट महापुरुषों) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तों में तुम (उद्धव), किम्पुरुषों में हनुमान, विद्याधरों में सुदर्शन (जिसने अजगर के रूप में नन्दबाबा को ग्रस लिया था और फिर भगवान के पादस्पर्श से मुक्त हो गया था) मैं हूँ। रत्नों में पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली, तृणों में कुश और हविष्यों में गाय का घी हूँ। मैं व्यापारियों में रहने वाली लक्ष्मी, छल-कपट करने वालों में द्यूतक्रीड़ा, तितिक्षुओं की तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषों में रहने वाला सत्त्वगुण हूँ।

मैं बलवानों में उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तों में भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवों के पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा-इन नौ मूर्तियों में मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ। मैं गन्धर्वों में विश्वावसु और अप्सराओं में ब्रह्मा जी के दरबार की अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतों में स्थिरता और पृथ्वी में शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ। मैं जल में रस, तेजस्वियों में परम तेजस्वी अग्नि; सूर्य, चन्द्र और तारों में प्रभा तथा आकाश में उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ।

उद्धव जी! मैं ब्राह्मण भक्तों में बलि, वीरों में अर्जुन और प्राणियों में उसकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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