एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद
उद्धव जी! मैंने तुम्हारे प्रश्न के अनुसार संक्षेप से विभूतियों का वर्णन किया। ये सब परमार्थ-वस्तु नहीं हैं, मनोविकार मात्र हैं; क्योंकि मन से सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है। इसलिए तुम वाणी के स्वच्छन्द भाषण को रोको, मन के संकल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणों को वश में करो और इन्द्रियों का दमन करो। सात्त्विक बुद्धि के द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धि को शान्त करो। फिर तुम्हें संसार के जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्ग में भटकना नहीं पड़ेगा। जो साधक बुद्धि के द्वारा वाणी और मन को पूर्णतया वश में नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल, इसलिये मेरे प्रेमी भक्त को चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्ति युक्त बुद्धि से वाणी, मन और प्राणों का संयम करे। ऐसा कर लेने पर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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