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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [167] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-सखी! मन के द्वारा फोड़ लिये जाने के कारण ही नेत्र भी गये। वे जाकर श्यामसुन्दर की शोभा पर लुब्ध (मोहित) हो गये, (परंतु इस प्रकार के व्यवहार से) उन्होंने (अपनी भी) कोई भलाई नहीं की। श्यामसुन्दर जब अचानक आये, तभी ये (नेत्र) उनमें निर्निमेष दृष्टि लगाये रहे और एक क्षण में ही लोक का संकोच और कुल की मर्यादा भुला दी। (अब मैं) व्याकुल होकर जहाँ-तहाँ घर में आक की रुई के समान बनी उड़ती (अस्थिर घूमती) हूँ, (अब यह) शरीर भी अपने-जैसा नहीं लगता, मानो यह भी दूसरे का हो। सखियो! सुनो! मन के ऐसे ढंग हैं, उसने (कुछ) ऐसा (ही निश्चय) ठान लिया है। इधर श्यामसुन्दर ने रूप की मोहिनी डालकर (मेरे) नेत्रों को (भी) वश में कर लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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