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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [195] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) इन नेत्रों की कहानी (मोहन को) सुनायें, श्यामसुन्दर के आगे इनका गुण तथा अवगुण तिल-तिल करके (सम्पूर्ण) रहस्य प्रकट कर दें! (श्यामसुन्दर से कह-) ‘तुम (तो) इनसे विश्वास बढ़ाते (इनका दृढ़ विश्वास करते) हो; किंतु ये अपना ही स्वार्थ देखने वाले हैं। तुमसे प्रेम करके ये अपना स्वार्थ मान रहे हैं; इसीलिये ‘हाँ जी, हाँ जी’ कहते हैं। ये किसी का गुण (उपकार) मानते नहीं, अपना ही सुख भरे लेते (अपना ही स्वार्थ सिद्ध करते) हैं। हमारे स्वामी! ये पहले प्रेम करते हैं, फिर पीछे दुःख देते हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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