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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल [203] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) यद्यपि (हमारे) नेत्र भरते ही ढुलक जाते (अश्रु गिरा देते) हैं, (फिर भी) अपलक बने रहते हैं, कहीं तनिक भी हटती नहीं, (मोहन को देखने में) भली प्रकार तृप्त होते ही नहीं। यद्यपि इनका शरीर (उस रस से) पूर्ण है। तब भी रात-दिन अपने सुख के लिये ही मरते रहते हैं। (मनमोहन की छवि) ले-लेकर अपने भीतर भरते रहते हैं, दूसरे किसी पर विश्वास (ही) नहीं करते। जैसे भागता हुआ चोर समझता है कि जो ले लिया जाय, वही अपना है, सुनो! ये (नेत्र) भी वैसे ही लोभी हैं, इनके माता-पिता धन्य हैं! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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