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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [61] (सूरदासजी के शब्दों में) ये (ऊपर के पद में कही गयी) बातें कहकर गोपी ने मौन धारण कर लिया। (वह चुप हो रही) । श्यामसुन्दर का प्रेम (जो) ह्रदय रूपी घट में पूर्ण होकर छलक पड़ा था (मुख से प्रकट हो रहा था), उसे उसने एक बार (तो) सँभालकर (चेष्टापूर्वक) रोका; फिर शरीर की दशा भूलकर (वह) वैसे ही (पहले के समान) ढंग पर आ गयी और पुकार-पुकारकर कहने लग-‘कोई नन्दनन्दन लो! नन्दनन्दन लो!’ उस सखी से (जो उपदेश दे रही थी, अपरिचित की भाँति) तब कहने लगी— ‘अरी! तू कौन है? कहाँ- (किस ग्राम— ) की स्त्री है? जहाँ श्रीवनमाली हैं, उस नन्द भवन को मैं किधर होकर जाऊँ?’ उसको देखकर सखी चकित हो गयी (और सोचने लगी) कि ‘यह भ्रम से अभिभूत होकर व्याकुल हो गयी है, श्यामसुन्दर को (जाकर इसकी दशा) कह सुनाऊँ; (न जाने) इस पर क्या जादू डाल गये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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