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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सूही बिलावल [89] सूरदासजी ने शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी!) मेरे दो (ही) नेत्र और वे भी पूर्ण नहीं। (मोहन को) बिना देखे क्षण भर भी शान्ति नहीं मिलती, उस पर यह (पलक गिराने का) स्वभाव बना दिया। ये बार-बार उस शोभा को देखते ही रहना चाहते हैं, (किंतु) पलकों का गिरना रूप जो साथी मिल गये हैं, वे क्षण-क्षण पर आड़ करते रहते हैं और वे दोनों (नेत्र) (श्याम को) देखते ही भर आते हैं। (अतः) मैं उन- (मोहन-) को कैसे पहचानूँ? बिना नेत्र के कोई भेद (रहस्य) कैसे देख सकता है। निष्ठुर विधाता ने जो नेत्र दिये हैं, वे भी पलकों के पड़ते ही (निमिष मात्र में) (आँसुओं से) भर जाते हैं। तू जानती है और सब लोग जानते हैं कि मैं श्याम से मिली; इससे क्या हो गया। मैंने तो (मिलकर भी कानों से) (श्यामसुन्दर का) नाम भर सुना है, भली प्रकार वे भी तो दर्शन नहीं देते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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