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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग [230] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी! मेरा तो) प्रत्येक रोम नेत्र हो गया है; जैसे मेघ पर्वत पर वर्षा करते हों, वैसे ही बूँद-बूँद द्रवित होकर वे समाप्त हो गये हैं। (अथवा) जैसे भ्रमर कमल के रस को पीकर उन्मत्त हो जाते हैं, ऐसे ही मुझे छोड़कर वे उन्मत्त हो गये हैं। (अथवा) जैसे सर्प केंचुल छोड़ देता है और लौटकर उधर नहीं देखता, वैसे ही वे जो गये सो गये (फिर नहीं लौटे) । उन – (नेत्र-) की ऐसी दशा हो गयी है कि (वे) श्यामसुन्दर के रूप में डूब गये। हमारे स्वामी की शोभा (तो) अपार है; पता नहीं, (वे) उनके किस अंग में निवास कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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