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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गौरी [164] (कोई गोपी कह रही ह-सखी!) (मेरा) मन (तो) बिगड़ा ही था, इन (दोनों) नेत्रों को भी (उसने) बिगाड़ दिया। अरी देखो, (वह मन) ऐसा निष्ठुर हो गया है कि तभी से (श्यामसुन्दर के समीप से) हटाने से भी हटता नहीं। (पहले) इन्द्रियों को फोड़ा, अब नेत्रों को भी ले बैठा, श्यामसुन्दर से ही बहुत अधिक परच गया है। ये सब विचारे खानाजाद (मेरे पाने-पोसे) अब मेरे क्या हैं, कौन हैं। मैंने (इन्हें) इतने – (छोट-) से इतना (बड़ा) किया; (किंतु) आज (ये) कैसे भूल गये। सूरदासजी कहते हैं— सुनो! जो अपना ही स्वार्थ देखने वाले हैं, वे स्वयं अपने द्वारा ही मारे गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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