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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [27] सूरदासजी के शब्दों में गोपी कहती है— ‘श्यामसुन्दर (हमारी) पलकों की ओट (क्षणमात्र को भी) नहीं होते (सदा सम्मुख ही रहते हैं) । घर के बड़े लोग अनेक प्रकार से भय दिखलाते, लज्जाशील बनने को कहते हैं; किंतु (हम क्या करें, हमें) लज्जा आती ही नहीं। (हमारे) नेत्र (तो) जहाँ श्यामसुन्दर दिखायी पड़ते हैं, वहीं लगे रहते हैं और (हमारे) कान (उनकी) मनोहर वाणी सुनकर मुग्ध हो गये हैं, हमारी जीभ और कुछ नहीं कहती— (सदा) ‘श्याम! श्याम!’ यही रट लगाये रहती है। (यह हमारा) चंचलचित्त लोक- (समाज— ) की लाज और मर्यादा मिटाकर उनके साथ-ही-साथ घूमता (रहता) है, स्वामी ने तभी (पहले दर्शन में ही हमारा) मन हर लिया, (तब) बेचारे (इस) शरीर का क्या जोर चल सकता है!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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