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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ [196] सूरदासजी के शब्दों मन कोई गोपी कह रही ह-(सखी!) यों (तो) ये नेत्र हमारे हैं; (क्योंकि) मैंने (इन्हें) बचपन से पाल-पोसकर इतने – (छोट-) से इतना (बड़ा) किया है। इन्हें (मैं) धोती थी, फिर अंचल लेकर पोंछती थी और (फिर) भलीभाँति इन्हें आँजती (अंजन लगाती) थी; (अब ये) बड़े हुए तब उपकार मानकर (व्यंग से कृतघ्न बनकर) जहाँ-तहाँ भाग चलते हैं। (अतः) श्याम के सामने हम यही कहें कि ‘तुम ऐसे (नमकहराम) सेवक कहाँ पाओगे। अब ये ढीठ हुए यहाँ (तुम्हारे पास) घूमते हैं, (अन्त में तुम्हें भी) इनको (ऐसी आदतें देखकर) छोड़ते ही बनेगा (इनका त्याग करना ही पड़ेगा) । श्यामसुन्दर! तुम तीनों लोकों के स्वामी हो, तुम (किसी को) दुःख देने वाले नहीं हो; जैसे-तैसे करके इन – (नेत्र-) को हमसे मिला दो, यही प्रार्थना करके हम तुम्हारी बलिहारी जाती हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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