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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री[298] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) इन नेत्रों का स्वभाव छूटता नहीं, क्या करूँ। ये चंचल रोकते-रोकते उठकर भागने लगते हैं। घाट पर या मार्ग में जहाँ-कहीं श्यामसुन्दर मिल जाते हैं, वहीं मैं मुख छिपाकर चल देती हूँ, (किंतु) ये नेत्र परके हुए स्वर्ण चुराने वाले के समान बड़ी शीघ्रता से वह छबि (इस प्रकार) चुरा लेते हैं, मानो श्याम के मुख-कमल को पाकर (ये नेत्र रूपी) भौंरे मधु के लिये लोलुप हो गये हैं, और घूँघट के द्वारा रोके जाने पर जल से रहित मछली के समान अत्यन्त व्याकुल हो उठते हैं। जो निर्लज्ज होकर कुल की मर्यादा मानते नहीं, उनसे क्या वश चल सकता है। सखी! इनसे श्यामसुन्दर का मुख देखे बिना रहा (जो) नहीं जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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