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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली [19] ‘अरी! कोई आकर गोरस लो।’ (गोप कुमारियाँ) वृक्षों से यह कहती फिरती हैं, (किंतु) कोई हमें (आज) बुलाकर इसे लेता नहीं! कभी सब अधीर होकर यमुना-किनारे जाती हैं, कभी शीघ्रता से (सब) एकत्र होकर वंशीवट के पास खड़ी होती हैं और (कहती हैं— ) ‘मोहन! आकर (अपना) गोरस का दान लो, (अरे) कहाँ छिपे हो? तुम्हारे (इस) भय से कि तुम सब दही छीन लोगे, इसीलिये (बिना दान दिये हम आगे) नहीं जा रही हैं। (फिर) सब समझाकर कहती हैं— (श्यामसुन्दर!) अपना दान (आकर) माँग लो, (नहीं तो) फिर तुम आकर क्रोध करके सब दही ढुलका (गिरा) देते हो।’ एक-दूसरी से (यह) बात पूछती हैं कि ‘कन्हैया कहाँ (चले) गये?’ सूरदासजी कहते हैं कि हमारे स्वामी के प्रेम में (वे) निमग्न हैं, (इससे उनका) चित्त भ्रमित हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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