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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री [188] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-सखी! (मेरे) नेत्र मेरे हाथ (वश) – में नहीं हैं; (क्योंकि) परम सुन्दर कमललोचन वनमाली (इन पर) इधर से ही मोहिनी डालते गये हैं। वे पीछे थे, ये (नेत्र) आगे दौड़ गये; मैं (इन्हें) रोकते-रोकते श्रम करके थक गयी। उन्होंने मेरी ओर फिरकर देखा (भी) नहीं, (उनकी) उस आतुरता का क्या वर्णन करूँ। जैसे जलते हुए मकान को छोड़कर भागना चाहिये, उसी प्रकार वे गये और लौटकर देखा तक नहीं। (वे) श्यामसुन्दर के प्रेम के रसिक बनकर दूध में पानी के समान (उन्हीं में निमग्न) हो गये, (अब भला, उन्हें) अलहदा (पृथक्) कौन कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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