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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग[316] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्रों ने (मेरे) प्राणों को चुराकर (श्यामसुन्दर को) दे दिया। (मैंने) नवीन एवं अत्यधिक उत्कण्ठा वाले (अपने) इन नेत्रों को फिर समझाया, पर ये समझे (ही) नहीं। ये अत्यन्त चतुर हैं, चतुराई (करना) जानते हैं और सभी कलाओं (विद्याओं) – में निपुण हैं, परंतु सखी! लोभ के पीछे ये उसी प्रकार बन्धन में पड़ गये, जैसे चारे के लोभ से मछली काँटे से छिद जाती है। क्या कहूँ, कहने योग्य बात नहीं है, मनुष्य ओछे विचारों के अधीन रहता है। (इन्होंने) श्यामसुन्दर के मिलन-सुख के लिये लोभ से अपने को बन्धन में ही नहीं डलवाया; अपितु घर की सभी पूँजी भी देकर (उन्हें) सौंप दी। (अब) जैसे धागे के वश में पतंग देखी जाती है, उसी प्रकार ये श्यामसुन्दर के साथ पराधीन हुए घूमते तथा मेरे स्वामी के रूप-सागर में मिल गये हैं और उसके जल के समान ही अपने गुण भी कर लिये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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