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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग देवगंधार[278] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) मेरे इन नेत्रों ने इतना (अनर्थ) किया, ये मोहन के मुख को एकटक देखने से उसी प्रकार नहीं हटे, जैसे चकोर चन्द्रमा को देखने से नहीं हटता। जैसे मणि को देखकर सर्प आनन्दित हो जाता है, वैसे ही (श्यामसुन्दर को देखकर) ये नेत्र अत्यन्त आनन्द से भर गये हैं। (वे) सम्पत्ति पाकर नीचों के समान गर्व में आ स्वजनों की उपेक्षा करते हैं, उसी प्रकार (इन्होंने) हमारी उपेक्षा की। जब (श्यामसुन्दर के दर्शन से) घूँघट के वस्त्र द्वारा रोके गये, तब शिशु के समान हठ पकड़कर अड़ गये। एक पल (भी) धैर्य नहीं रखते, (केवल) रोने के बल पर (ही) (इन्होंने) हठ पकड़ लिया है। खीझकर लज्जा (रूपी) छड़ी लेकर (मैंने इन्हें) दण्ड भी दिया; किंतु एक भी भय से ये डरे नहीं। (क्या करें) जब अपना ही माल (नग आदि) खोटा (अपने ही नेत्रों में दोष) है, ता रत्न-पारखी – (श्यामसुन्दर-) को किसलिये दोष दिया जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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