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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ [161] (एक गोपी कह रही ह-सखी!) मेरा मन तो (श्यामसुन्दर के पास) गया, (किंतु) नेत्र मेरे थे; अब उस मनने इन – (नेत्र-) से (भी) कुछ ऐसी साँठ-गाँठ कर ली कि ये भी श्यामसुन्दर के दास हो गये। ये (नेत्र) मेरे लिये तनिक-से सहायक थे, (सो) इन्हें भी इन्द्रियों ने मिलकर अपनी ओर कर लिया। (वे सभी) एक-एक कर चले गये, मुझसे किसी ने कुछ कहा (पूछा) नहीं, श्यामसुन्दर के प्रति आसक्त हो गये। जैसे गीली दीवाल पर डालते (फेंकते) ही कंकड़ी उसमें गड़ जाती है, सूरदासजी कहते हैं, वैसे ही (मोहन की) अंग-छवि पर ये निष्ठुर आसक्त होकर लगे हैं, (अब) वहाँ से उखाड़े नहीं जा पाते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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