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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [75] सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा सखियों से कहती ह-दो नेत्र तुम्हारे और दो ही मेरे (भी) हैं; (फिर भी) तुमने (मोहन के) सभी अंगों को देख लिया, किंतु मैं (तो) उनका एक अंग देखकर ही तल्लीन हो गयी। सखी! यह तो अपना-अपना भाग्य है; तुम सब उनमें तन्मय हो और मैं (उनके) कहीं समीप भी नहीं हूँ। जो बोया जाता है, वही काटने को मिलता है। त्रिलोकी में मूँड़ मारने पर भी (अपने कर्म फल को छोड़) और (विपरीत) कुछ नहीं मिलता। (तात्पर्य यह कि तुम्हारे समान पुण्य मेरे नहीं हैं।) श्यामसुन्दर का रूप (- सौन्दर्य तो) समुद्र के समान अथाह है, (क्या उससे कोई) छोटी नौकाओं पर चढ़कर पार हो सकता है? वैसे ही मेरे ये नेत्र हैं, उनकी कृपा रूपी जहाज के बिना वे भला पार हो कैसे सकते हैं? (उनके रूप का दर्शन तो उनकी कृपा से, उनकी दी हुई शक्ति से ही होता है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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