विषय सूची
अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री [42] सूरदासजी के शब्दों में वह गोपी फिर कह रही है— (सखी!) बार-बार मुझे क्या सुनाती (उपदेश करती) है, मैं स्वयं अपने को एक प्रकार से समझाती हूँ; किंतु वह मूर्ति तो मेरे ह्रदय से तनिक भी हटती (ही) नहीं। सखी! तू तो बड़ी समझदार है, फिर मुझे दोष क्यों दे रही है? अपने अनुरूप मैंने बहुत चेष्टा की; (किंतु) तेरा दबाव टिकता नहीं। (क्या करूँ, मेरे) नेत्र और किस को देखते (ही) नहीं और कान किसी और की सुनते नहीं। अब तो (मेरे) शरीर में प्राण (यही) कहते रहते हैं कि श्यामसुन्दर से मुझे शीघ्र मिला दो।’ [43] सूरदासजी के शब्दों में गोपी कह रही है— ‘(सखी!) श्रीहरि का मुख देखते ही (मेरा) सब कुछ खो गया, (वे) मेरे हाथ-ही-हाथ में (मेरे वश में) नहीं रहे, जो घूँघट की आड़ या वस्त्र- (अंचल— ) की आड़ करते। (अब) किसकी लज्जा, किसका भय और तेरे कहने- (उपदेश— ) से भी क्या हुआ? अब (उसे) कौन सुने? कान ही किसके हैं तथा निरे (एक बेर के) टेर ने- (सदुपदेश करने— ) से भी (अब) क्या होना है? न (तो) मेरे नेत्र हैं और न मैं नेत्रों की हूँ, जिन्हें (तू) बदला हुआ समझती है। कामदेव के दास मन ने (मुझे) श्यामसुन्दर की दासी बना दिया है (अतः अब मैं स्वतन्त्र कहाँ हूँ) ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पद | पद संख्या |