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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल [181] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्र अद्भुत (दर्शन-सुख रूप) सम्पत्ति पाकर (उसे) भरपूर लूटने में लगे हैं। यह समझकर (मुझे इन पर) दया लगती है कि इन्हें मैंने ही जिलाया (पाला) है; किंतु इनके ह्रदय में थोड़ी भी दया नहीं, उलटे हम पर क्रोध करते हैं। (ये) श्यामसुन्दर रूपी अक्षय (कभी न घटने वाली) सम्पत्ति पाकर भी कृपण कहलाते हैं, ये ऐसे लोभी हो गये हैं। तब (पहले) (हमने) इन्हें (ऐसा) नहीं समझा था। (ये हमारे) सदा साथ-ही-साथ रहते थे, (इसलिये हम) इन्हें (अपना) अत्यन्त हितैषी मानती थीं। (किंतु) हमारे साथ जैसा व्यवहार इन्होंने किया, ऐसा (तो) और कोई नहीं कर सकता था। (सच तो है) जो हाथ में अग्नि पकड़ता है, वही जलता भी है (हमने इन नेत्रों का साथ किया, अतः वेदना भी हैं ही भोगनी है) । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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