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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सूही[303] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-चतुर सखी! (मेरे) नेत्रों की बात सुनो; वे रात-दिन संतप्त रहते हैं, कभी शीतल होते ही नहीं, यद्यपि इनकी पलकों में उमड़कर जल (अश्रु-प्रवाह) बहता रहता है। मैं (उसके लिये) अनेक उपचार (उपाय) मन में सोचती हूँ; किंतु लोक की लज्जा और कुल का संकोच इन्हें वैरी (बाधक) हो रहे हैं। कुछ अच्छा नहीं लगता, उस (श्यामसुन्दर के) कमल-मुख की मंद मुसकान के दर्शन की दावाग्नि में (ये नेत्र) जलते रहते हैं। (श्यामसुन्दर के) रूप (सौन्दर्य) – की लाठी के अभिमान से निर्भय होकर संसार का उपहास सुनते हुए भी ये लज्जित नहीं होते; बुद्धि, विचार शक्ति, वचन-चातुर्य आदि सब मानो उलटकर उनमें ही लीन हो गये हों। (मैं इस कारण) शिष्टों का मार्ग (पातिव्रत्य) और गुरुजनों का उपदेश आदि छिपाकर (विस्मृत करके) ऐसी व्याकुल हो गयी कि शरीर की (भी) सुधि खो गयी। अब तो ये (नेत्र) जीवन के लिये हितकारी श्यामसुन्दर की उस किशोर छवि का अंजन (अपने में बसा लेने के लिये) माँगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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