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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग मलार [234] (एक गोपी कह रही ह-सखि!) तभी से (मेरे) नेत्र एकटक (अपलक) रह गये हैं; जब से नन्द-नन्दन उन्हें दिखायी पड़े। तनिक भी कहीं (वे) हटते नहीं। लाल-लाल ओठों पर वंशी रखे और कपोलों पर कुण्डल की आभा धारण किये मोहन – (की उस छट-) को देखते ही नेत्र (इस भाँति) एकटक हो पलक गिराना भूल गये, मानो मोल बिक गये हों। वे भला, हमको क्यों न भूल जायँ, (जब कि) उन्हें अपनी (ही) सुधि नहीं है। सूरदासजी कहते ह-इनके नेत्र (तो) श्यामसुन्दर की शोभा के सिन्धु में लीन हो गये हैं, (ये व्रज-) तरुणियाँ व्यर्थ पश्चात्ताप करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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