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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल [18] (गोप कुमारियाँ) खाली (ही) मटकी की सिर पर रखे हैं। (उनमें) किसी को वन या घर का (हम वन में हैं या घर के सम्मुख) कुछ स्मरण नहीं है; (केवल) ‘दही लो, दही लो!’ यह कहती फिर रही हैं। कभी (किसी) कुंज के भीतर (चली) जाती हैं और वहाँ श्यामसुन्दर का स्मरण करती हैं। (जब) शरीर की कुछ सुधि आती है, तब चौंक पड़ती हैं और सुनती हैं कि सखियाँ जहाँ-तहाँ (दही लो, दही लो!) पुकार रही हैं। तब यह कहती हैं— ‘मैं इनसे कहूँ कि (ये) वन में व्यर्थ भटक-भटक कर (क्यों) मर रही हैं।’ सूरदासजी कहते हैं कि (वे) फिर श्यामसुन्दर के प्रेम में छककर (सखियों को समझाना भूलकर स्वयं फिर) उसी प्रकार (दही लो, दही लो! कहकर भटकने की ओर) ढुलक जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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