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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिहागरौ [134] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है— (सखी!) मेरा मन श्याम के रूप में फँस गया है; मैंने बहुत प्रयत्न किये, पर (वह) फिर हिला तक नहीं, (उसी पर) लट्टू (मुग्ध) होकर (वहीं) उलझ गया। उसने (वहाँ) ऐसी टेक (पकड़) पकड़ी है कि जैसे-जैसे (मैं उसे) खींचती हूँ, वैसे-वैसे (ही वह वहीं) डूबता जाता है। देखो तो, मुझसे (वह) शत्रुता करता है और उनके यहाँ जाकर अनुकूल बन गया है। जैसे सूर्य का दर्शन मिलने से शिव-क्षत (घाव विशेष) गलता जाता है, उसी प्रकार वह (मनमोहन दर्शन पाकर) गल गया (उनमें मिल गया) है। स्वामी के रूप में (डूबकर) वह ऐसा शिथिल हो गया है, जैसे हाथी कीचड़ – (दलदल— ) में पड़ा हो। (एक सज्जन ने ‘शिवछत’ को शिवजी का प्रस्वेद बताकर इसका अर्थ शिलाजतु किया है। जैसे शिलाजतु सूर्य का दर्शन पाकर पिघल जाता है, वैसे ही गोपी का मन भी श्यामसुन्दर के दर्शन से द्रवित हो गया।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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