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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग नट [73] सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा कहती ह-(सखी!) मेरे नेत्र जान-बूझकर अनजान हो गये; (वे) श्रीहरि का एक ही अंग देखते रहे, और कहीं (दूसरे अंग पर) गये ही नहीं। (मैं) इस प्रकार भूली रही, जैसे चोर सम्पत्तिपूर्व घर में घुस जाय, किंतु कोई सम्पत्ति उससे ली न जाय, उलटते-पलटते सबेरा हो जाय, कुछ ले न सके, सब छोड़ दे। पहले तो अत्यन्त आकुल होकर मैंने (श्यामसुन्दर से) प्रीति की और उनके अनुराग में ही रँग गयी। फिर अब हठपूर्वक उन्हें क्यों दोष देती हो? (यह अनुराग की) पीड़ा तो प्रत्येक पल नवीन होती (अधिकाधिक बढ़ती) ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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