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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल [206] सूरदासजी की शब्दों में एक दूसरी गोपी कहती ह-सखी! जो लोभी हैं, वे (दूसरे को) क्या दे सकते हैं। (ये मेरे) नेत्र, जैसे महान् निष्ठुर हैं, ऐसे निष्ठुर (उन्हें) मैं नहीं जानती थी। मन तो कभी-न-कभी अपना हो जायगा, पर ये (नेत्र) हमारे नहीं होंगे; (क्योंकि) जब से ये नन्दनन्दन के पास गये, तब से इन्होंने लौटकर (हमारी ओर) देखा ही नहीं। चाहे (मैं) करोड़ों उपाय कर लूँ, पर वे हमें मानने वाले नहीं हैं। वे तो अगाध (अपार) सौन्दर्य पर परच गये हैं। यदि श्यामसुन्दर (ही) उन्हें कभी भय दिखायें तो हमारी चाह पूरी हो जाय। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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