श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 33-44

सप्तम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-44 का हिन्दी अनुवाद


उनके गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उड़ने लगे और उनके तेज की चकाचौंध से आकाश तथा दिशाओं का दीखना बंद हो गया। इस समय नृसिंह भगवान् का सामना करने वाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की राजसभा में ऊँचें सिंहासन पर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोध भरे भयंकर चेहरे को देखकर किसी का भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे।

युधिष्ठिर! जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान् के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। आकाश में विमानों से आये हुए भगवान् के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। तात! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान् के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अंजलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंह भगवान् की थोड़ी देर से अलग-अलग स्तुति की।

ब्रह्मा जी ने कहा- 'प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं-फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'

श्रीरुद्र ने कहा- 'आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मारने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये।'

इन्द्र ने कहा- 'पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतंक से संकुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हम लोगों को पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है कि क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है।'

ऋषियों ने कहा- 'पुरुषोत्तम! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्या की रक्षा के लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है।'

पितर ने कहा- 'प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थों में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम अपको नमस्कार करते हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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