श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 28-47

सप्तम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 28-47 का हिन्दी अनुवाद


यही बात भगवान् श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करने वाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हीं को प्राप्त हो गये। एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान् में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान् को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से। महाराज! गोपियों ने भगवान् से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेष से, यदुवंशियों ने परिवार के सम्बन्ध से, तुम लोगों ने स्नेह से और हम लोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान् में लगाया है। भक्तों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के भगवान् का चिन्तन करने वाले हैं, उनमें जो राजा वेन की तो किसी में ही गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकार से भगवान् में मन नहीं लगाया था)। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिये। महाराज! फिर तुम्हारे जैसे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णु भगवान् के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणों के शाप से इन दोनों को अपने पद से च्युत होना पड़ा था।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा- नारद जी! भगवान् के पार्षदों को भी प्रभावित करने वाला वह शाप किसने दिया था? वह कैसा था? भगवान् के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है। वैकुण्ठ के रहने वाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीर से सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये।

नारद जी ने कहा- एक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठ में जा पहुँचे। यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानो पाँच-छः बरस के बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालों ने उनको भीतर जाने से रोक दिया। इस पर वे क्रोधित-से हो गये और द्वारपालों को यह शाप दिया कि ‘मूर्खों! भगवान् विष्णु के चरण तो रजोगुण और तमोगुण से रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करने योग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँ से पापमयी असुर योनि में जाओ’। उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा- ‘अच्छा, तीन जन्मों में इस शाप को भोगकर तुम लोग फिर इसी वैकुण्ठ में आ जाना’।

युधिष्ठिर! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनसे बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवों के समाज में यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे। विष्णु भगवान् ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार करने के समय वराह अवतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होने कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं। परन्तु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान् के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदय में अटल शान्ति थी। भगवान् के प्रभाव से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करने पर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालने में समर्थ न हुआ। युधिष्ठिर! वे ही दोनों विश्रवा मुनि के द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूप में पैदा हुआ। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातों से सब लोकों में आग-सी लग गयी थी। उस समय भी भगवान् ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनोगे। वे ही दोनों जय-विजय इस जन्म में तुम्हारी मौसी के लड़के शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र का स्पर्श प्राप्त हो जाने से उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादि के शाप से मुक्त हो गये। वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान् को प्राप्त हो गये और पुनः उनके पार्षद होकर उन्हीं के समीप चले गये।

युधिष्ठिर जी ने पूछा- भगवन्! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष क्यों किया? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे। साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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