श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 44-55

सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 44-55 का हिन्दी अनुवाद


मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्ति के लिये निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय ग़रीबों को छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियों के लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता।

घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है-जैसे कि दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परन्तु पीछे से दुःख-ही-दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगने पर भी इन विषयों से अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगों को भी सह लेते हैं। सहने से ही उनका नाश होता है।

पुरुषोत्तम! मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं-मौन, ब्रह्मचर्य, शस्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविका के साधन-व्यापार मात्र रह जाते हैं और दम्भियों के लिये तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवन निर्वाह के साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान आपके दो रूप बताये हैं-कार्य और कारण। वास्तव में आप प्राकृतरूप से रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपों को छोड़कर आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठ-मन्थन के द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोग की साधना से आपको कार्य और कारण दोनों में ही ढूँढ निकालते हैं। क्योंकि वास्तव में ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं।

अनन्त प्रभो! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण-सब कुछ केवल आप ही हैं और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है। समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन्! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणों के परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जानने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब आदि-अन्त वाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो जाते हैं।

परमपूज्य! आपकी सेवा के छः अंग हैं-नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलों का चिन्तन और लीला-कथा का श्रवण। इस षडंग सेवा के बिना आपके चरणकमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्ति के बिना आपकी प्रप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परमप्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं।

नारद जी कहते हैं- इस प्रकार भक्त प्रह्लाद ने बड़े प्रेम से प्रकृति और प्राकृत गुणों से रहित भगवान् के स्वरूपभूत गुणों का वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान् के चरणों में सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंह भगवान् का क्रोध शान्त हो गाया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नता से बोले।

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- 'परमकल्याणस्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हूँ। आयुष्मन्! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदय में किसी प्रकार की जलन नहीं रह जाती। मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परमभाग्यभावान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही यत्न करते हैं।'

असुरकुलभूषण प्रह्लाद जी भगवान् के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में डालने वाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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