श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 42-57

सप्तम स्कन्ध: पंञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया। बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बार से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह सोचने लगा- ‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया। यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनः-शेप[1] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा। न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’।

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही- ‘स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है। जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाये। इसलिये उसे वरुण पाशों से बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’।

हिरण्यकशिपु ने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’।

युधिष्ठिर! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे। परन्तु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरु जी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द और विषय भोगों में रस ले रहे हों।

एक दिन गुरु जी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा। प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे। युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषय भोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसी से, और प्रह्लाद के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लाद जी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शुनःशेप अजीगर्त का मँझला पुत्र था। उसे पिता ने वरुण के यज्ञ में बलि देने के लिये हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहिताश्व के हाथ बेच दिया था। तब उसके मामा विश्वामित्र जी ने उसकी रक्षा की; और वह अपने पिता के विरुद्ध होकर उनके विपक्षी विश्वामित्र जी के ही गोत्र में हो गया। यह कथा आगे ‘नवम स्कन्ध’ के सातवें अध्याय में आवेगी।

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