श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 30-41

सप्तम स्कन्ध: पंञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद ने कहा- पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती।

प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा- ‘दैत्यों! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है। देखो तो सही- जिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनों को छोड़कर यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है। हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारने वाला विष्णु ही आ गया है। अब यह विश्वास के योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्य स्नेह को भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णु का ही क्या हित करेगा। कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अंग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है। यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोग लोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करने वाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो’।

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशों वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’- इस प्रकार बड़े जोर से चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद जी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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