सप्तम स्कन्ध: पंञ्चमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद
कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये। प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था। युधिष्ठिर! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा। हिरण्यकशिपु ने कहा- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ। प्रह्लाद जी ने कहा- "पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।" प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा- 'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है। संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।' गुरुपुत्र ने कहा- 'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।' नारद जी कहते हैं- युधिष्ठिर! जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा- ‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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