श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 16-34

सप्तम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद


यदि अपने को अधिकार आदि यज्ञ के लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्निहोत्र आदि के द्वारा भगवान् की आराधना करनी चाहिये। युधिष्ठिर! वैसे तो समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् ही हैं; परन्तु ब्राह्मण के मुख में अर्पित किये हुए हविष्यान्न से उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अग्नि के मुख में हवन करने से नहीं। इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियों में यथायोग्य, उनके उपयुक्त सामग्रियों के द्वारा सबके हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान भगवान् की पूजा करनी चाहिये। इसमें प्रधानता ब्राह्मणों की ही है।

धनी द्विज को अपने धन के अनुसार आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि) का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये। इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकर की संक्रान्ति), विषुव (तुला और मेष की संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण के समय, द्वादशी के दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रों में, वैशाख शुक्ला तृतीय (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुक्ला नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन-इन चार महीनों की कृष्णाष्टमी, माघशुक्ला सप्तमी, माघ की मघा नक्षत्र से युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीने की वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदि से युक्त हो-चाहे चन्द्रमा पूर्ण हो या अपूर्ण; द्वादशी तिथि का अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तरभाद्रपदा के साथ योग, एकादशी तिथि का तीनों उत्तरा नक्षत्रों से योग अथवा जन्म-नक्षत्र या श्रवण नक्षत्र से योग-ये सारे समय पितृगणों का श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं। ये योग केवल श्राद्ध के लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मों के लिये उपयोगी हैं। ये कल्याण की साधना के उपयुक्त और शुभ की अभिवृद्धि करने वाले हैं। इन अवसरों पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये। इसी में जीवन की सफलता है। इन शुभ संयोंगो में जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणों की पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियों को समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है।

युधिष्ठिर! इसी प्रकार स्त्री के पुंसवन आदि, सन्तान के जात कर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि संस्कारों के समय, शव-दाह के दिन या वार्षिक श्राद्ध के उपलक्ष्य में अथवा अन्य मांगलिक कर्मों में दान आदि शुभकर्म करने चाहिये। युधिष्ठिर! अब मैं उन स्थानों का वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेय की प्रप्ति कराने वाला है। सबसे पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों। जिनमें यह सारा चर और अचर जगत् स्थित है, उन भगवान् की प्रतिमा जिस देश में हों, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणों से युक्त ब्राह्मणों के परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान् की पूजा होती हो और पुराणों में प्रसिद्ध गंगा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं। पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषों के द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम, (शालाग्राम क्षेत्र), नैमिषारण्य, फाल्गुन क्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दु सरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजी के आश्रम-अयोध्या, चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुल पर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान् के अर्चावतार हैं-वे सब-के-सब देश अत्यन्त पवित्र हैं। कल्याणकामी पुरुष को बार-बार इन देशों का सेवन करना चाहिये। इन स्थानों पर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्यों को उनका हजार गुना फल मिलता है।

युधिष्ठिर! पात्र निर्णय के प्रसंग में पात्र के गुणों को जानने वाले विवेकी पुरुषों ने एकमात्र भगवान् को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत् उन्हीं का स्वरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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