श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 35-42

सप्तम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद


अभी तुम्हारे इसी यज्ञ की बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकों के रहने पर भी अग्रपूजा के लिये भगवान् श्रीकृष्ण को ही पात्र समझा गया।

असंख्य जीवों से भरपूर इस ब्राह्मणरूप महावृक्ष के एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी पूजा से समस्त जीवों की आत्मा तृप्त हो जाती है। उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदि के शरीररूप पुरों की रचना की है तथा वे ही इन पुरों में जीवरूप से शयन भी करते हैं। इसी से उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है।

युधिष्ठिर! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि शरीरों में उनकी विभिन्नता के कारण न्यूनाधिकरूप से प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरों की अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्यों में भी, जिसमें भगवान् का अंश-तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है।

युधिष्ठिर! त्रेता आदि युगों में जब विद्वानों ने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरे का अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगों ने उपासना की सिद्धि के लिये भगवान् की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। तभी से कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्री से प्रतिमा में ही भगवान् की पूजा करते हैं। परन्तु जो मनुष्य से द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमा की उपासना करने पर भी सिद्धि नहीं मिल सकती। युधिष्ठिर! मनुष्यों में भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणों से भगवान् के वेदरूप शरीर को धारण करता है। महाराज! हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या-ये जो सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि उनके चरणों की धूल से तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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