श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 18-28

नवम स्कन्ध: दशमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद


यह देखकर राक्षसराज रावण ने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्त में भाई कुम्भकर्ण को भी युद्ध करने के लिये भेजा। राक्षसों की वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रों से सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीराम ने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान और पनस आदि वीरों को अपने साथ लेकर राक्षसों की सेना का सामना किया।

रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीराम के अंगद आदि सब सेनापति राक्षसों की चतुरंगिणी सेना-हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलों के साथ द्वन्दयुद्ध की रीति से भिड़ गये और राक्षसों को वृक्ष, पर्वत शिखर, गदा और बाणों से मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावण के अनुचर थे, जिसका मंगल श्रीसीता जी को स्पर्श करने के कारण पहले ही नष्ट हो चुका था। जब राक्षसराज रावण ने देखा कि मेरी सेना का तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमान पर आरुढ़ हो भगवान् श्रीराम के सामने आया। उस समय इन्द्र का सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उस पर भगवान् श्रीराम जी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उन पर प्रहार करने लगा।

भगवान श्रीराम जी ने रावण से कहा- ‘नीच राक्षस! तुम कुत्ते की तरह हमारी अनुपस्थिति में हमारी प्राणप्रिया पत्नी को हर लाये! तुमने दुष्टता की हद कर दी! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे काल को कोई टाल नहीं सकता-कर्तापन के अभिमानी को वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनी का फल चखाता हूँ’। इस प्रकार रावण को फटकारते हुए भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर चढ़ाया हुआ बाण उस पर छोड़ा। उस बाण ने वज्र के समान उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखों से खून उगलता हुआ विमान से गिर पड़ा-ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मा लोग भोग समाप्त हो जाने पर स्वर्ग से गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्लाने लगे।

तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरी के साथ रोती हुई लंका से निकल पड़ीं और रणभूमि में आयीं। उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मण जी के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियों को हृदय से लगा-लगाकर ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं। हाय-हाय! स्वामी! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भय से समस्त लोकों में त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहने से हमारे शत्रु लंका की दर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लंका किसके अधीन रहेगी। आप सब प्रकार से सम्पन्न थे, किसी भी बात की कमी न थी। परन्तु आप काम के वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीता जी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशा का कारण बन गयी। कभी आपके कामों से हम सब और समस्त राक्षस वंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लंका नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधों का आहार बन रहा है और अपने आत्मा को आपने नरक का अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकता का फल है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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