श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 35-43

तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद


सनकादि के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणों के शाप को किसी भी प्रकार के शस्त्रसमूह से निवारण होने योग्य न जानकर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभाव से उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणों से बहुत डरते हैं। फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा- ‘भगवन्! हम अवश्य अपराधी हैं; अतः आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान् का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्ड से सर्वथा धुल जायेगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत्स्मृति को नष्ट करने वाला मोह न प्राप्त हो।

इधर जब साधुजनों के हृदयधन भगवान् कमलनाभ को मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालों ने सनकादि साधुओं का अनादर किया है, तब वे लक्ष्मी जी के सहित अपने उन्हीं श्रीचरणों से चलकर ही वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन ढूँढ़ते रहते हैं- सहज में पाते नहीं। सनकादि ने देखा कि उनकी समाधि के विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे है, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चमरादि लिये चल रहे हैं तथा प्रभु के दोनों ओर राजहंस के पंखों के समान दो श्वेत चँवर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायु से उनके श्वेत छत्र में लगी हुई मोतियों की झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही हैं मानो चन्द्रमा की किरणों से अमृत की बूँदें झर रही हों।

प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्रा को देखकर जान पड़ता था मानो वे सभी पर अनवरत कृपासुधा की वर्षा कर रहे हैं। अपनी स्नेहमयी चितवन से वे भक्तों का हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्षःस्थल पर स्वर्णरेखा के रूप में जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकों के चूड़ामणि वैकुण्ठधाम को सुशोभित कर रहे थे। उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बों पर झिलमिलाती हुई करधनी और गले में भ्रमरों से मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयों में सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुड़ जी के कंधे पर रख दूसरे से कमल का पुष्प घुमा रहे थे। उनके अमोल कपोल बिजली की प्रभा को भी लजाने वाले मकराकृत कुण्डलों की शोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई उघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिर पर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओं के बीच महामूल्यवान् मनोहर हार की और गले में कौस्तुभ मणि की अपूर्व शोभा थी। भगवान् का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था। उसे देखकर भक्तों के मन में ऐसा वितर्क होता था कि इसके सामने लक्ष्मी जी का सौंदर्याभिमान भी गलित हो गया है।

ब्रह्मा जी कहते हैं- देवताओं! इस प्रकार मेरे, महादेव जी के और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करने वाले श्रीहरि को देखकर सनकादि मुनीश्वरों ने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छवि को निहारते-निहारते उनके नेत्र तृप्त नहीं होते थे। सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्द में निमग्न रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान् कमलनयन के चरणारविन्द मकरन्द से मिली हुई तुलसी मंजरी के गन्ध से सुवासित वायु ने नासिका रन्ध्रों के द्वारा उनके अन्तःकरण में प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीर को सँभाल न सके और उस दिव्य गन्ध ने उनके मन में भी खलबली पैदा कर दी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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