श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 26-34

तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 26-34 का हिन्दी अनुवाद


जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवास-स्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानों से विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छः ड्योढ़ियाँ पार करके जब वे सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयु वाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये- जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलंकृत थे। उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकारों से गुंजायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फड़कते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरे पर कुछ क्षोभ के-से चिह्न दिखायी दे रहे थे।

उनके इस प्रकार देखते रहने पर भी वे मुनिगण उनके बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ों से युक्त पहली छः ड्योढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वार में भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे निःशंक होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोक के विचरते थे। वे चारों कुमार पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्मा की सृष्टि में आयुध में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों-से जान पड़ते थे और दिगम्बर वृत्ति से (नंग-धडंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार निःसंकोच रूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालों ने भगवान् के शील-स्वभाव के विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे। जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्न पड़ने के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे।

मुनियों ने कहा- अरे द्वारपालों! जो लोग भगवान् की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान् के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हीं में से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है? भगवान् तो परमशान्त स्वभाव हैं, उनका किसी से विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिस पर शंका की जा सके? तुम स्वयं कपटी हो, इसी से अपने ही समान दूसरों पर शंका करते हो। भगवान् के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है, इसीलिए यहाँ रहने वाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देवरूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान् के साथ कुछ भेदभाव के कारण होने वाले भय की कल्पना कर ली। तुम हो तो इन भगवान् वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्ड का विचार करते हैं। तुम अपनी मन्द भेदबुद्धि के दोष से इस वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम क्रोध, लोभ-प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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