श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 17-25

तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद


वहाँ विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओं के सहित अपने प्रभु की पवित्र लीलाओं का गान करते रहते हैं, जो लोगों की सम्पूर्ण पापराशि को भस्म कर देने वाली हैं। उस समय सरोवर में खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लता की सुमधुर गन्ध उनके चित्त को अपनी ओर खींचना चाहती हैं; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरन उस गन्ध को उड़ाकर लाने वाले वायु को ही बुरा-भला कहते हैं। जिस समय भ्रमराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरि कथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है-मानो वे भी उस कीर्तानानन्द में बेसुध हो जाते हैं। श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्ध का ही अधिक आदर करते हैं-यह देखकर वहाँ के मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलक वृक्ष), उत्पल (रात्रि में खिलने वाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नाग केसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिन में खिलने वाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होने पर भी तुलसी का ही तप अधिक मानते हैं।

वह लोक वैदूर्य, मरकतमणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पाद पद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चिट्टों में बड़े-बड़े नितम्बों वाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुस्कान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं। परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मी जी, जिनकी कृपा प्राप्त करने के लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवन में चंचलतारूप दोष को त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरणकमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन कि स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों।

प्यारे देवताओं! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीड़ावन में तुलसीदल द्वारा भगवान् का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिका से सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान् का चुम्बन किया हुआ है’ यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं। जो लोग भगवान् की पापहारिणी लीला कथाओं को छोड़कर बुद्धि को नष्ट करने वाली अर्थ-काम सम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक में नहीं जा सकते। हाय! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती हैं। अहा! इस मनुष्य योनि की बड़ी महिमा है, हम देवता लोग भी इसकी चाह करते हैं। इसी में तत्त्वज्ञान और धर्म की भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान् की आराधना नहीं करते, वे वास्तव में उनकी सर्वत्र फैली हुई माया से ही मोहित हैं। देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभु के सुयश की चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीर में रोमांच हो जाता है और जिनके-से शील स्वभाव की हम लोग भी इच्छा करते हैं-वे परमभागवत ही हमारे लोकों से ऊपर उस वैकुण्ठधाम में जाते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः