श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 44-50

तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 44-50 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् का मुख नीलकमल के समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकली के समान मनोहर हास से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये और फिर पद्मराग के समान लाल-लाल नखों से सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हीं का ध्यान करने लगे। इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधकों से सिद्ध न होने वाली स्वाभाविक अष्टसिद्धियों से सम्पन्न श्रीहरि की स्तुति करने लगे-जो योगमार्ग द्वारा मोक्षपद की खोज करने वाले पुरुषों के लिये उनके ध्यान का विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्द की वृद्धि करने वाले पुरुषरूप प्रकट करते हैं।

सनकादि मुनियों ने कहा- अनन्त! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूप से दुष्टचित्त पुरुषों के हृदय में भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टि से ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रों के सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्मा जी ने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणरन्ध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे; किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान् सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है। भगवन्! हम आपको साक्षात् परमात्मातत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रह से अपने इन भक्तों को आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्ति को राग और अहंकार से मुक्त मुनिजन आपकी कृपा दृष्टि से प्राप्त हुए सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा अपने हृदय में उपलब्ध करते हैं।

प्रभो! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनिय और सांसारिक दुःखों की निवृत्ति करने वाला है। आपके चरणों की शरण में रहने वाले जो महाभाग आपकी कथाओं के रसिक हैं, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपद को कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगों के विषय में तो कहना ही क्या है।

भगवन्! यदि हमारा चित्त भौंरे की तरह आपके चरणकमलों में ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसी के समान आपके चरणसम्बन्ध से ही सुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधा से परिपूर्ण रहें तो अपने पापों के कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियों में हो जाये-इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है। विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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