श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 33-42

चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 33-42 का हिन्दी अनुवाद


फिर राजर्षि पृथु से कहा, ‘राजन्! आप तो मोक्षधर्म के जानने वाले हैं; अतः अब आपको इन यज्ञानुष्ठानों की आवश्यकता नहीं है। आपका मंगल हो! आप और इन्द्र-दोनों की पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीहरि के शरीर हैं; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्र के प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये। आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआ-इसके लिये आप चिन्ता न करें। हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये। देखिये, जो मनुष्य विधाता के बिगाड़े हुए काम को बनाने का विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोध में भरकर भयंकर मोह में फँस जाता है। बस, इस यज्ञ को बंद कीजिये। इसी के कारण इन्द्र के चलाये हुए पाखण्डों से धर्म का नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओं में बड़ा दुराग्रह होता है।

जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़े को चुराकर आपके यज्ञ में विघ्न डाल रहा था, उसी के रचे हुए इन मनोहर पाखण्डों की ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही है। आप साक्षात् विष्णु के अंश हैं। वेन के दुराचार से धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्म की रक्षा के लिये ही आपने उसके शरीर से अवतार लिया है। अतः प्रजापालक पृथु जी! अपने इस अवतार का उद्देश्य विचार कर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरों का संकल्प पूर्ण कीजिये। यह प्रचण्ड पाखण्ड-पथरूप इन्द्र की माया अधर्म की जननी है। आप इसे नष्ट कर डालिये’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझाने पर प्रबल पराक्रमी महराज पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया और इन्द्र के साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली। इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञों से तृप्त हुए देवताओं ने उन्हें अभीष्ट वर दिये। आदिराज पृथु ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणों ने उनके सत्कार से सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये। वे कहने लगे, ‘महाबाहो! आपके बुलाने से जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभी का आपने दान-मान से खूब सत्कार किया’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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