श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 19-32

चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद


यज्ञपशु को चषाल और यूप में[1] बाँध दिया गया था। शक्तिशाली इन्द्र ने घोर अन्धकार फैला दिया और उसी में छिपकर वे फिर उस घोड़े को उसकी सोने की जंजीर समेत ले गये। अत्रि मुनि ने फिर उन्हें आकाश में तेजी से जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वांग देखकर पृथुपुत्र ने उनके मार्ग में कोई बाधा न डाली। तब अत्रि ने राजकुमार को फिर उकसाया और उसने गुस्से में भरकर इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया। यह देखते ही देवराज उस वेष और घोडों को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये। वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट गया। तब से इन्द्र के उस निन्दित वेष को मन्दबुद्धि पुरुषों ने ग्रहण कर लिया। इन्द्र ने अश्वहरण की इच्छा से जो-जो रूप धारण किये थे, वे पाप के खण्ड होने के कारण पाखण्ड कहलाये। यहाँ ‘खण्ड’ शब्द चिह्न का वाचक है। इस प्रकार पृथु के यज्ञ का विध्वंस करने के लिये यज्ञपशु चुराते समय इन्द्र ने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था, उन ‘नग्न’, ‘रक्ताम्बर’ तथा ‘कापालिक’ आदि पाखण्डपूर्ण आचारों में मनुष्यों की बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती है; क्योंकि ये नास्तिकमत देखने में सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियों से अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। वास्तव में उपधर्ममात्र हैं। लोग भ्रमवश धर्म मानकर उनमें आसक्त हो जाते हैं।

इन्द्र की इस कुचाल का पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज पृथु को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया। उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजों ने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्र का वध करने को तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन्! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोड़कर और किसी का वध करना उचित नहीं है। इस यज्ञ कार्य में विघ्न डालने वाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयश से ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात् अग्नि में हवन किये देते हैं’।

विदुर जी! यजमान से इस प्रकार सलाह करके उसके याजकों ने क्रोधपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया। वे स्रुवा द्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा जी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया। वे बोले, ‘याजको! तुम्हें इन्द्र का वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान् की ही मूर्ति है। तुम यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की आराधना कर रहे हो, वे इन्द्र के ही तो अंग हैं और उसे तुम यज्ञ द्वारा मारना चाहते हो। पृथु के इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्म का उच्छेदन करने वाला है। इस बात पर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा। अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथु के निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यज्ञमण्डप में यज्ञपशु को बाँधने के लिये जो खम्भा होता है, उसे ‘यूप’ कहते हैं और यूप के आगे रखे हुए वलयाकर काष्ठ को ‘चषाल’ कहते हैं।

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