चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद
इन्द्र की इस कुचाल का पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज पृथु को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया। उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजों ने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्र का वध करने को तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन्! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोड़कर और किसी का वध करना उचित नहीं है। इस यज्ञ कार्य में विघ्न डालने वाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयश से ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात् अग्नि में हवन किये देते हैं’। विदुर जी! यजमान से इस प्रकार सलाह करके उसके याजकों ने क्रोधपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया। वे स्रुवा द्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा जी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया। वे बोले, ‘याजको! तुम्हें इन्द्र का वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान् की ही मूर्ति है। तुम यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की आराधना कर रहे हो, वे इन्द्र के ही तो अंग हैं और उसे तुम यज्ञ द्वारा मारना चाहते हो। पृथु के इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्म का उच्छेदन करने वाला है। इस बात पर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा। अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथु के निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यज्ञमण्डप में यज्ञपशु को बाँधने के लिये जो खम्भा होता है, उसे ‘यूप’ कहते हैं और यूप के आगे रखे हुए वलयाकर काष्ठ को ‘चषाल’ कहते हैं।
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