श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 33-46

सप्तम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद


बड़े-बड़े दुःखों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी पाकर की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। जैसे भगवन के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं।

युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है। उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल ही एक गुण भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।

युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के संग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसंग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधुपुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर ने पूछा- नारद जी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया। पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते। फिर प्रह्लाद जी-जैसे अनुकूल, शुद्ध हृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारद जी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कौतूहल शान्त कीजिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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