श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 17-32

सप्तम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरंगों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे। पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेलने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता। इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगने वाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियों का दास ही तो था।

युधिष्ठिर! इस रूप में भी वह भगवान् का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया। उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान् की शरण ली। (उन्होंने मन-ही-मन कहा-) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान् के उस परमधाम को हम नमस्कार करते हैं’। इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान् की आराधना की।

एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देने वाली वह वाणी यों थी-‘श्रेष्ठ देवताओं! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इसको मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो। कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है। जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’

नारद जी कहते हैं- सबके हृदय में ज्ञान का संचार करने वाले भगवान् ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया।

युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संत सेवी थे। ब्राह्मण भक्त, सौम्य स्वभाव, सत्य प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। ग़रीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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