श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 46-56

सप्तम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 46-56 का हिन्दी अनुवाद


नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जाने पर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखने वाला बुद्धिरूप सारथि रथ के स्वामी जीव को उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्यु से अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसार के कुएँ में गिरा देंगे।

वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं- एक तो वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर ले जाते हैं-प्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयों की ओर से लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कार के योग्य बना देते हैं-निवृत्तिपरक। प्रवृत्तिपरक कर्ममार्ग से बार-बार जन्म-मृत्यु की प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्ग के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है। शयेनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पुर्त्त्कर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभाव से युक्त होने पर अशान्ति के ही कारण बनते हैं। प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरने पर चरु-पुरोडाशादि यज्ञ-सम्बन्धी द्रव्यों के सूक्ष्म भाग से बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है। फिर क्रमशः रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोक में पहुँचता है। वहाँ से भोग समाप्त होने पर अमावस्या के चन्द्रमा के समान क्षीण होकर वृष्टि द्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्य के रूप में परिणत होकर पितृयान-मार्ग से पुनः संसार में ही जन्म लेता है।

युधिष्ठिर! गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको ‘द्विज’ कहते हैं। (उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्ग का अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जाने वाले निवृत्तिमार्ग का।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूर्त आदि कर्मों से होने-वाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान कराने वाले इन्द्रियों में हवन कर देता है। इन्द्रियों को दर्शनादि संकल्पस्वरूप मन में, वैकारिक मन को परावाणी में और परावाणी को वर्ण समुदाय में, वर्ण समुदाय को ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरों के रूप में रहने वाले ॐ कार में, ॐ कार को बिन्दु में, बिन्दु को नाद में, नाद को सूत्रात्मारूप प्राण में तथा प्राण को ब्रह्म में लीन कर देता है।

वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायंकाल, शुक्ल पक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायण के अभिमानी देवताओं के पास जाकर ब्रह्मलोक में पहुँचता है और वहाँ के भोग समाप्त होने पर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधि को सूक्ष्म में लीन करके सूक्ष्मोपाधिक ‘तैजस’ हो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधि को कारण में लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ’ रूप से स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूप से सर्वत्र अनुगत होने के कारण साक्षी के ही स्वरूप में कारणोपाधिका लय करके ‘तुरीय’ रूप से स्थित होता है। इस प्रकार दृश्यों का लय हो जाने पर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है। इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जाने वाला आत्मोपासक संसार की ओर से निवृत्त होकर क्रमशः एक से दूसरे देवता के पास होता हुआ ब्रह्मलोक में जाकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गी के समान फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता। ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टि से इन्हें तत्त्वः जान लेता है, वह शरीर में स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः