श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 30-45

सप्तम स्कन्ध: पञ्चदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 30-45 का हिन्दी अनुवाद


जो पुरुष अपने मन पर विजय प्राप्त करने के लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रह का त्याग करके संन्यास ग्रहण करे। एकान्त में अकेला ही रहे और भिक्षा-वृत्ति से शरीर-निर्वाह मात्र के लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे।

युधिष्ठिर! पवित्र और समान भूमि पर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर-भाव से समान और सुखकर आसन से उस पर बैठकर ॐ कार का जप करे। जब तक मन संकल्प-विकल्पों को छोड़ ने दे, तब तक नासिका के अग्रभाव पर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचक द्वारा प्राण तथा अपान की गति को रोके। काम की चोट से घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाये, विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह वहाँ-वहाँ से उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदय में रोके। जब साधक निरन्तर इस प्रकार का अभ्यास करता है, तब ईंधन के बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समय में उसका चित्त शान्त हो जाता है। इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्द के संस्पर्श में मग्न हो जाता है और फिर उसका कभी उत्थान नहीं होता।

जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और काम के मूल कारण गृहस्थाश्रम का परित्याग कर देता है और फिर उन्हीं का सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुए को खाने वाला कुत्ता ही है। जिन्होने अपने शरीर को अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था-वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं। कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँव में रहने वाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी-ये चारों आश्रम के कलंक हैं और व्यर्थ ही आश्रमों का ढोंग करते हैं। भगवान् की माया से विमोहिती उन मूढ़ों पर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। आत्मज्ञान के द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी हैं और जिसने अपने आत्मा को परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषय की इच्छा और किस भोक्ता की तृप्ति के लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीर का पोषण करेगा?

उपनिषदों में कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियों का स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान् के द्वारा निर्मित बाँधने की विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐकार ही उस रथी का धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कार के द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा में लीन कर देना चाहिये)। राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरे के गुणों में दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरे की उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवों के और भी बहुत-से शत्रु हैं। उनमें रजोगुण और तमोगुण प्रधान वृत्तियाँ अधिक हैं, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्त्वगुण प्रधान ही होती हैं।

यह मनुष्य-शरीररूप रथ जब तक अपने वश में है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशा में विद्यमान हैं, तभी तक श्रीगुरुदेव के चरणकमलों की सेवा-पूजा से शान धरायी हुई ज्ञान की तीखी तलवार लेकर भगवान् के आश्रय से इन शत्रुओं का नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासन पर विराजमान हो जाये और फिर अत्यन्त शान्त भाव से इस शरीर का भी परित्याग कर दे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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